अघरिया समाज का संक्षिप्त इतिहास अखिल भारतीय अघरिया समाज का केन्द्रीय समिति का संविधान
पारंपरिक लोक कथाओं के अनुसार – अघरिया राजपूत हैं, जो आगरा के निकट निवासरत थे जो लगभग 1550 ई0 में उड़ीसा व वर्तमान छत्तीसगढ़ में आए । तब वे दिल्ली के तत्कालीन शासक सिकंदर लोधी व आदिलशाह के अत्याचार से प्रताडि़त थे। अघरिया सोमवंशी राजपूत थे जो स्वभाव से स्वाभिमानी थे। वे राजा को भी बिना सिर झुकाए सलाम करते थे। जिससे राजा ने सबक सिखाने के लिए तीन तरीका चुना पहला – उन्हें कांधार युद्ध में झोंक दिया जाए, दूसरा – उन्हें धर्मातंरित कर मुस्लिम बना दिया जावे, तीसरा – उनका सर कलम दिया जावे। इस आशय की पूर्ति के लिए मुगल शासक ने दरवाजा में गर्दन की ऊंचाई तलवार को आढ़े लटका कर बांध दिया ताकि सिर नहीं झुकाने पर गर्दन कट जावे और उनका वंश समाप्त हो जावे। परन्तु बुद्धिमान अघरिया ने राजा के चाल को भांप लिया और राजा के बुलावे में खुद न जाकर अपने दलित जाति के नौकर को अपने बदले राजा के दरबाज में भेजा, जहाॅं पर राजा ने नौकर के सिर को कलम कर दिया। राजा की अपने प्रति खराब मंशा को भाप कर अपने व उस दलित नौकर के परिवार को साथ लेकर अघरिया परिवार तत्कालीन उड़ीसा रियासत (वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ व बिलासपुर जिले) के पश्चिमी क्षेत्र में आ गये। तब से अघरिया अपने रक्षा के लिये बलिदान देने वाले दलित परिवार के वंशजों को समर्पण व सहानुभूति के साथ उनका भरण पोषण व देखभाल करते आ रहे है।
अघरिया उसी समय से वर्तमान छत्तीसगढ़ व पश्चिमी उड़ीसा के सीमांत क्षेत्रों में निवासरत है। अघरिया का 84 परिवार वहां पर निवासरत थे जिन्हें 84 घर अघरिया कहा गया जिनके वंशजों में 6 परिवार ने चैधरी, 60 परिवार ने पटेल तथा 18 ने नायक का उपनाम धारण किया। इसमें 44 परिवारों ने पश्चिमी उड़ीसा तथा शेष परिवारों ने छत्तीसगढ़ के तत्कालीन बिलासपुर तथा रायगढ़ के सीमांत अंचलों में बस गए। उस समय उड़ीसा में हिंदू शासक राज्य करते थे। तत्कालीन शासक गजपती राजा मुकुंददेव के पास अघरिया परिवार के मुखिया ने यहां बसने व जीवकोपार्जन को लेकर जगह की मांग की । तब राजा ने उसके सामने दो विकल्प रखा, प्रथम रजत जडि़त तलवार व दूसरा – स्वर्णजडि़त लकड़ी का डंडा रखकर एक चुनने को कहा। तब अघरिया परिवार के मुखिया ने स्वर्णजडि़त लकड़ी के डंडे को चुना जिसके कारण राजा ने लकड़ी के हल के विकल्प के रूप में कृषि कार्य अर्थात हल चलाने का आदेश दिया। जब से अघरिया समाज ने जीवनयावन के लिए खेती को चुना जिसका परिणाम स्वरूप मेहनती अघरिया को वर्तमान में श्रेष्ठ किसान की ख्याति प्राप्त है।
अघरिया परिवारों को राजा मुकुंददेव ने सर्व प्रथम वर्तमान झारसोगड़ा जिले के ग्राम लैदा की जमीनदारी सौंप दिया। कालान्तर में उनके उधमी एवं परिश्रमी स्वभाव के कारण विभिन्न गांवों की मालगुजारी (पटेल, नायक और चैधरी उपनाम) मिलती गई। अघरिया गुजरते समय के साथ उड़ीसा के साथ ही वर्तमान छत्तीसगढ़ के पूर्व अंचल में अपना विस्तार करते गए, परिणामस्वरूप आज वर्तमान छत्तीसगढ़ के रायगढ़, महासमुन्द, जांजगीर-चाम्पा, बिलासपुर जिलों के अतिरिक्त जशपुर, रायपुर आदि जिलों प्रभावशाली समाज के रूप में विद्यमान है। जो अखिल भारतीय अघरिया समाज नामक संगठन के तहत अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा व मान-सम्मान के साथ सामाजिक मान्यताओं के रक्षण पोषण करती हुई विशाल समाज का परिचय दे रही है। उड़ीसा के कई जिलों में निवासरत अघरिया बंधु भी इसी सामाजिक संगठन से जुड़कर नियम परंपराओं का पालन कर रहे है। अघरिया वेश भूषा-संस्कार, विसौंधी परंपरा-अघरिया तन ढ़कने के लिए शुरूआती तौर पर ब्राम्हणों की तरह पोतिया तथा कंधे पर गमछा रखते थे, साथ ही जनेऊ धारण करते रहे थे । जिसे कालांतर में खेती के कार्य में संलग्न होने से आ रही कठिनाइयों के मद्दे नजर अपने ही एक परिवार को अघरिया परंपरा व संस्कृति को अक्षुण्य बनाए रखने के आशय से यह कह कर – कटार व जनेउ को सौंप दिया कि वे वह अघरिया सभ्यता व संस्कृति के अनुरूप संस्कारों का पालन करते हुए उनका रक्षण करे जिसके एवज में प्रत्येक अघरिया परिवार अपने आय के 20 अंश में से 01 अंश उसे देकर उसके व परिवार के जीवन यापन की व्यवस्था करेगा। फलस्वरूप उस परिवार को विसौंधी उपनाम दे दिया गया। जिनके वंशज आज भी रायगढ़ जिले में निवास कर रहे हैं । जो पूर्व में अघरिया परिवार के बीच शादी विवाह के रस्मों को संपादित कराते रहे हैं । यद्यपि वर्तमान में यह व्यवस्था गुजरते समय के साथ समाज में कमतर दिखाई दे रहा है। फिर भी हमें उन्हें समाज के मुख्य धारा में लाकर अपने वर्तमान पीढ़ी से परिचय कराना हमारे संगठन का सामाजिक दायित्व है। अघरिया स्वभाव-अघरिया प्रारंभ से ही स्वाभिमानी होने के साथ ही ईमानदार, निष्ठावार व्यक्ति रहा है, जिसके मन में हमेशा अपने सहयोगियों व निष्ठावान व्यक्ति रहा है, जिसके मन में हमेशा अपने सहयोगियों व मातहतों के लिए आदर के साथ सहानुभूति कूट-कूट भरी रही है परिणाम स्वरूप वह हमेशा अपनों की बीच मुखिया बना रहा है जो कि उनके द्वारा धारित उपनाम चैधरी, पटेल, नायक के विश्लेषण से दर्षित होता है जिसका अर्थ है नेतृत्व करने वाला याने मुखिया । जिससे कालांतर में गांव के गौंटिया के नाम से आज भी संबोधित किया जाता है। अघरिया ने अपने 84 परिवारों में से 6 ने चैधरी, 60 ने पटेल व 18 ने नायक का उपनाम स्वीकार कर अपने गोत्र को धारण किया जो आज भी सामाजिक संस्कारों में मान्यता के साथ ही उसके वंशज अपनाए हुए हैं।
अघरिया के आराध्य देव व पितृ पुरूष:- अघरिया महाभारत के विदुर के दो पुत्र बैरानु एवं पुरामने के वंशज माने जाते है जिसके कारण अघरिया अपने आप के विदुर बंशीय क्षत्री भी कहते हैं । कहीं कहीं पर सोमवश्ंाी क्षत्रीय भी कहा जाता है। यह बात स्पष्ट रूप से स्थापित है कि अघरिया जाति स्पष्ट रूप से स्थापित है कि अघरिया जाति स्वभाव से क्षत्रीय हैं जो किसी के समक्ष सिर झुकाना स्वीकार नहीं करते थे तथा अपने स्वभाव व प्रकृति के अनुरूप कटार रखते थे।
विदुर वशीय होने के कारण भगवान श्री कृष्ण ही अघरिया के आराध्य देव के रूप में आज भी स्वीकार कर पूजनीय है । अघरिया शुरू से ही धर्म, वेद-पुराण के साथ आस्थावान है तथा तीर्थाटन, धर्म गुरूओं के प्रति समर्पण के साथ हिन्दु धर्मावलम्बी रहा है।
अघरिया का व्यवसाय – अघरिया मूलतः उन्नत कृषक के रूप में प्रतिष्ठित है । परन्तु अब खेती में आ रही कठिनाई को देखते हुए भावी पीढ़ी ने शिक्षा की ओर अग्रसर होकर शासकीय सेवाओं के साथा व्यवसायिक जगत में भी अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराया है। वर्तमान में उच्च प्रशासनिक सेवा, न्यायिक सेवा, विदेश सेवा के साथ ही अघरिया चिकित्सा, वकालत, यांत्रिकी व विभिन्न निजी व्यवसाय में भी सफल है।
अघरिया में विवाह – अघरिया में बहुत से परिवारों के बीच जागरूकता के अभाव में वास्तविक गोत्र, जो कि मूलतः परिवार के रक्त समूह पर आधारित रहा है, का ज्ञान नहीं होने के कारण रक्त प्रतिकूलता की वजह से समाज में अघरिया समाज में सिकल सेल एनीमिया नामक घातक बिमारी के लक्षण पाए जा रहे है। फलस्वरूप वर्तमान समय में सभी अघरिया जनों से आग्रह है कि गोत्र के साथ ही विवाह तय करने के पूर्व वर-वधु के रक्त समूह का परीक्षण अनिवार्य रूप से कराएं ताकि घातक रोग के प्रकोप से भावी पीढ़ी को बचाया जा सके । वर्तमान में अघरिया समाज में सगोत्रीय व विजातीय विवाह पूर्णत प्रतिबंधित है जिसके उल्लंघन पर सामाजिक दंड का प्रावधान है।
विवाह संस्कार – अघरिया में शादी वैदिक रीति रिवाज से ब्राम्हण के द्वारा मंत्रों एवं सप्तपदी संस्कार से संपन्न कराया जाता है। जिसमें पारंपरिक देव वृक्ष महुआ के डाल से मंडपाच्छादन, मातृका पूजन, ग्रामदेव पूजन, पाणिग्रहण के बेला पर कन्यादान की जाती है। विवाह में कन्या के परिजनों के द्वारा वर-वधु को नव जीवन प्रवेश पर भावी जीवन-यापन की मंगल कामनाओं के साथ पारंपरिक रूप से वस्त्र, आभूषण, फर्नीचर, बर्तन, वाहन आदि वस्तुएं भेंट स्वरूप प्रदान की जाती है।
दहेज एक अभिशाप – अघरिया समाज में दहेज को कभी भी सामाजिक मान्यता नहीं दी गई, परंतु आज तथाकथित सभ्य व शिक्षित वर्ग के बीच इसके विकृत स्वरूप का प्रदर्शन चिंतनीय है, जिसका समाज का आमजन अनुशरण करते हैं, अतः हर स्तर इसका पूर-जोर विरोध अपरिहार्य है। तभी दहेज रूपी अभिशाप के चंगुल से भावी पीढ़ी को बचा पायेंगे।
अघरिया-प्रकृति व व्यक्तिगत सजावट – अघरिया समुदाय के लोग शुरू से ही सुंदर, आकर्षक व मजबूत व्यक्ति के धनी रहे हैं। इनकी महिलाएं अपनी सुंदरता को निखारने के लिए नाक-कर्ण छेदन कर सोने-चांदी के गहनों से सुसज्जित हो, सर से पांव तक विभीन्न प्रकार के आभूषण् पहनती हैं वे साड़ी चोली पहनती रही हैं। जबकि पुरूष धोती व साफा धारण करते रहे हैं। वर्तमान में समाज के लोग पारंपरिक वेश-भूषा के अतिरिक्त सभी प्रकार के नवीन शैली के वस्त्र पहनते हैं। महिलाएं अपने से रिश्ते बड़े पुरूष के सामने आंचल से घूंघट करती है।
अघरिया की मातृ भाषा व बोल चाल शैली -अघरिया परिवारों के बीच उडि़या हिंदी छत्तीसगढ़ी हिंदी मिश्रित छत्तीसगढ़ी बोली जाती है तथा बोल चाल में अपने से बड़ों के प्रति आदर सूचक शब्दों का प्रयोग संस्कारित माना जाता है। वर्तमान परिवेष में शिक्षा प्रसार से प्रायः राष्ट्र भाषा हिंदी का प्रचलन अधिक होने के साथ यदा कदा परिवारों में अंग्रेजी का चलन भी है। इन परिस्थितियों में हमारी पहचान मूल भाषा छत्तीसगढ़ी विलुप्त हो रही है, जिसके प्रति चिंतन के साथ इसके संवर्धन व संरक्षण की अपेक्षा सामाजिक जन खासकर युवा पीढ़ी से है।
अखिल भारतीय अघरिया समाज -प्रतिनिधि संगठन-इस संगठन की नीवं सन् 1926 में चंद्रपुर – डभरा क्षेत्र के ग्राम रेडा में पड़ी, जहां पर सर्वप्रथम अघरिया महासभा का आयोजन कर पूर्वजों ने समाज को संगठित करने के लिए अखिल भारतीय अघरिया समाज का गठन कर सामाजिक एकता मशाल जलाया। यह संगठन सन् 1977 में पंजीकृत होकर अपने वर्तमान वैधानिक स्वरूप को प्राप्त किया तब हम गर्व से कहते हैं कि जय अघरिया-श्री कन्हैया। यद्यपि अघरिया समाज के इस इतिहास को संजोने में हर स्तर पर अनुसंधानकर्ताओं के साथ शोधपत्रों का सहारा लिया गया है। आप सब से आग्रह है कि यदि इस संबंध में तथ्यपरक जानकारी हो तो आप अपने सुझाव/संशोधन व त्रुटियों से संगठन को अवगत करावें।
इस लेख में किसी भी प्रकार की त्रुटि हुई हो और किसी के भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो हम क्षमा प्रार्थी हैं।